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रूक जा

उन्मत्त मानव, रूक जा जरा
मदमस्त मानव, ठहर जरा
जंगल से मंगल के आगे
बहुत हो चुका सफर तेरा

सृष्टी का अनुपम नजराना
विविधाओं से हराभरा
रंग जमा कर, अपनी जिद से
मोल लिया खुद को खतरा

जगज्जेता बन कर रीता
हाथ, जानता तू है तेरा
मानक क्या हो प्रगति का यह,
रूक कर, कर ले गौर जरा

रोक ले अपने बढते कदम अब
मन में झांक ले, क्या है मेरा
खींच ना सबकुछ औरों से
हक हरेक का , यहाॅं पूरापूरा

अंधी दौड में, सुख पाने की
दुखी पूरा कुनबा है तेरा
प्रशस्त करने अपना अॉंगन
यूँ रौंद ना सुंदर वसुंधरा

डॉ. स्वाति घाटे
२२/३/२०